(1) प्रस्थापक द्वारा दूसरे पक्षकार को प्रतिसंहरण की सूचना के संसूचित किए जाने से
(2) ऐसी प्रस्थापना में उसके प्रतिप्रहण के लिये विहित समय के बीत जाने से या यदि कोई समय इस प्रकार विहित न हो तो प्रतिमहण की संसूचना के बिना युक्तियुक्त समय बीत जाने से;
(3) प्रतिग्रहण किसी पुरोभाव्य शर्त को पूरा करने में प्रतिग्रहीता की असफलता से; अथवा
(4) प्रस्थापक की मृत्यु या उन्मत्तता से, यदि उसकी मृत्यु या उन्मत्तता का तथ्य प्रतिमहीता के ज्ञान में प्रतिग्रहण से पूर्व आ जाये।
- प्रतिग्रहण आत्यन्तिक होना ही चाहिए प्रस्थापना को वचन में संपरिवर्तित करने के लिए प्रतिग्रहण
(1) आत्यन्तिक और अविशेषित होना ही चाहिये;
(2) किसी प्रायिक और युक्तियुक्त प्रकार से अभिव्यक्त होना ही चाहिये; जब तक कि प्रस्थापना विहित न करती हो कि उसे किस प्रकार प्रतिग्रहीत किया जाना है। यदि प्रस्थापना विहित करती हो कि उसे किस प्रकार प्रतिग्रहीत किया जाना है और प्रतिग्रहण उस प्रकार से न किया जाये तो प्रस्थापक, उसे प्रतिग्रहण संसूचित किये जाने के पश्चात् युक्तियुक्त समय के भीतर आग्रह कर सकेगा कि उसकी प्रस्थापना विहित प्रकार से ही प्रतिमहीत की जाये, अन्यथा नहीं। किन्तु यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो वह प्रतिग्रहण को प्रतिग्रहीत करता है।
- शर्तों के पालन या प्रतिफल की प्राप्ति द्वारा प्रतिग्रहण किसी प्रस्थापना की शर्तों का पालन या व्यतिकारी वचन के लिये, जो प्रतिफल किसी प्रस्थापना के साथ पेश किया गया हो, उसका प्रतिग्रहण उस प्रस्थापना का प्रतिग्रहण है।
- वचन, अभिव्यक्त और विवक्षित जहाँ तक कि किसी वचन की प्रस्थापना या उसका प्रतिग्रहण शब्दों में किया जाता है, वह वचन अभिव्यक्त कहलाता है। जहाँ तक कि ऐसी प्रस्थापना या प्रतिग्रहण शब्दों से अन्यथा किया जाता है, वह वचन विवक्षित कहलाता है।
संसूचना का अर्थ-
धारा 2(क) एवं धारा 2 (ख) के अन्तर्गत प्रस्थापक (Proposer) को प्रस्थापना अर्थात् अपनी रजामन्दी (Willingness) प्रस्थापी को संज्ञापित करता है एवं प्रस्थापी (वचन ग्रहीता) अपनी अनुमति संज्ञापित करता है। यहाँ पर संज्ञापित करने का अर्थ दूसरे की जानकारी (संज्ञान) में लाने की होती है। यही संज्ञान में लाना ही संसूचना (Communication) कहा गया है। अतः यहाँ पर संसूचना की परिभाषा एवं संसूचना के तरीके को स्पष्ट करना आवश्यक है।
धारा 2 (क) में प्रयुक्त शब्दों “अपनी रजामन्दी दूसरे को संज्ञापित” करता है, यह स्पष्ट रूप में इंगित करता है कि ‘रजामन्दी’ या ‘अनुमति’ दूसरे पक्षकार के संज्ञान में लाना आवश्यक है। इस धारा से यह अपेक्षा की गयी है कि प्रस्थापना एवं इसका प्रतिग्रहण दूसरे पक्षकार के संज्ञान में लाना चाहिए जिससे दोनों पक्षकारों का मस्तिष्क किसी बात पर एक हो सके। यह शर्त संविदा होने के लिए आवश्यक है। धारा 13